Saturday 31 December 2011

नया साल !



छलकते जामों से भीगा-भीगा
चकाचौंध करती रोशनी में नहाया हुआ
शोरो-गुल के बीच हँसता, पर सहमा सा
वो एक लम्हा आएगा, दबे पांव
अपने जैसे बहुत से लम्हों की कतार में....
बचपन में खेली एक पहेली जैसा -
इतने मेरे आगे और इतने मेरे पीछे
तो बोलो मैं कहाँ पे हूँ?

क्या खास है उसमें?
कि है बस उसी लम्हे का इंतज़ार !
क्या साथ लायेगा अपने
खुशियाँ? -
एक लम्हें में भला कितनी खुशियाँ
कर लोगे महसूस
और कितनी बाँट पाओगे?
तुम तो नए साल के जश्न में
गले मिलते ही रह जाओगे !

खुशियाँ आएँगी, जरूर आएँगी
लेकिन अपने-अपने वक़्त पे
वो वक़्त भी होगा
हर किसी का अलग-अलग

आखिर समंदर अपने वक़्त से ज्वार चढ़ता है....
ख़ुशियाँ अपने वक़्त से दामन भरती हैं....
उम्मीदें अपने वक़्त से शक्ल लेती है ...
चाहत अपने वक़्त से परवान चढ़ती है...

इंतज़ार तो करना पड़ता है...

अच्छा है कहना खुशामदीद
नए साल!

लेकिन रहना होगा
दामन फैलाये साल भर
उन खुशियों के लिए
जो आ गिरेंगी मन की गोद
कभी भी, किसी पल भी........

Tuesday 27 December 2011

उन्मुक्त पवन का झोंका हूँ, बांधों न मुझे तुम बंधन में

उन्मुक्त  पवन  का  झोंका  हूँ,  बांधो   न  मुझे  तुम  बंधन  में


जब लगे हृदय  हो शुष्क चला, उर में  मरुथल सी अनल जले
जब  लगे  प्रेम  का भाव ढला,  अंतस  में   दुखिया  पीर  पले
जब  मीत  पुराना   ठुकराए,   मन    एकाकी    हो    घबराए
जब  आशाओं  के  दीप बुझें,   चहुँ   और  अन्धेरा  छा  जाए


उस    घडी   अचानक   आऊँगा,   मैं   तेरा  साथ  निभाऊंगा
कुछ    देर    तुम्हारे   होठों   पे,  बन  मृदुल-हँसी लहराऊंगा
दुःख के कंटक झर  जायेंगे, सुख-सुमन खिलेगा मन-वन में
तब  मुझको  उड़ जाना  होगा, मैं कब  ठहरा  एक आँगन में


उन्मुक्त  पवन  का  झोंका  हूँ,  बांधो   न  मुझे  तुम  बंधन  में










Tuesday 20 December 2011

इस शाम फासले फिर से


एक शाम धुंधली सी,
    चश्मे-नम सी सीली सी

सर्द-सर्द सीरत की,
    उदास कुछ तबीयत की 
आज घिर के आयी है,
    अपने साथ लाई है
दर्दे-जां वही फिर से,
    आसमां वही फिर से

डूबते से सूरज ने 
  सुर्ख रोशनाई से   
    आसमां के आँचल पे    
      रंगे-हिना उभारा था,  
सारा आसमां जैसे
  रच गया हो मेंहदी से
    क्या हसीन मंज़र था,
      क्या हसीं नज़ारा था !

और वही हिना अपने 
  हाथों में तुम रचाए हुए 
    उस से मिलने आयी थीं,
जिस के संग जीने की 
  जिस के संग मरने की
    कसमें तुमने खायी थीं,

हाँ, उसने सुन लिया होगा 
    जो तुमने कह दिया होगा,
दर्द यूँ बिछड़ने का
    नज़रों से बह गया होगा,
यूँ साथ छोड़ देने की 
    मजबूरियां रहीं होगीं,
अश्क़ों  में ढल गयी होंगी 
    लाचारियाँ रहीं होगीं,

उन कांपते से हाथों में
  बेजान उँगलियों ने फिर
    कागज़ कई समेटे थे,
ये ख़त वही रहे होंगे
  होठों से चूम कर तुमने
    जो उसके पास भेजे थे,

कुछ देर उसके कांधे पे
  तुम सर झुकाए बैठी थी  
    आँखों में इक दुआ ले कर,
तुमको भूल जाने की
  दुनिया नयी बसाने की
    कसमों की इल्तिज़ा ले कर,

लरजे हुए से पाओं से
  आँचल में मुंह छिपा अपना
    वो घर को लौटना तेरा,
मुश्किल से ज़ब्त अश्क़ों का
  भींची हुई वो मुश्कों का
    धीरे से खोलना उसका.....



वो शाम ढल गयी आख़िर 
  ये शामें ढल ही जाती हैं !
    और हर तरफ अँधेरा था, 
मैं दूर फासले पे था 
  उस शाम मैं पराया था 
    उस शाम मैं अकेला था,

तुम मेरे पास आ न सकी 
  तो मुझसे दूर क्या जाती !
    मेरा नहीं ये अफ़साना,
फिर भी उदास रातों में 
  क्यूँ बदस्तूर जारी है  
    एक ख़्वाब का चले आना ?

इस शाम फिर वही सूरज 
  इस शाम फिर हिना छाई 
    इस शाम फिर वही रंगत,
इस शाम फिर अकेला हूँ
  इस शाम फासले फिर से 
    इस शाम फिर वही खिलवत........ 


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चश्मे-नम = भीगी आँख
हिना - मेंहदी 
इल्तिज़ा = निवेदन
मुश्क = मुट्ठी 
खिलवत - एकांत 

Sunday 18 December 2011

इस उम्रे-बेक़रार को तनहा ही छोड़ दो


दिल में उमड़ रहा है, किसी नाम का धुआं  
सुलगी तमाम रात, ऐसी शाम का धुआं .

मेरी तलाश आके यहाँ ख़त्म हो गयी
उठने दो ग़र उठे जो इस मुक़ाम का धुंआ .

इस उम्रे-बेक़रार को तनहा ही छोड़ दो
इसका नसीब ख़्वाबे-बेलगाम का धुआं 


जो बन के अश्क़ दर्द को रस्ता ना दे सके 
बेकार की ख़लिश है, ये किस काम का धुआं .


दंगों की आग, शहर की तहजीब खा गयी
है चार सूं दुआओं का, सलाम का धुंआ .

हिन्दू का घर था याकि मुसलमां का घर जला 
देता नहीं पता, ये घर की बाम का धुआं .

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बाम  - छत 

Monday 12 December 2011

अभी वक़्त है, अभी लौट जा

अभी रात पूरी ढली नहीं
अभी बात शहर में चली नहीं
अभी चाँद पे बदली नहीं 
अभी वक़्त है, अभी लौट जा

अभी रास्तों में है ख़ामोशी
अभी धूल है, ना हवा कोई
अभी पैरों का ना निशां कोई 
अभी वक़्त है, अभी लौट जा 

अभी तुमने कुछ भी कहा नहीं
अभी मैंने कुछ भी सुना नहीं
अभी किस्सा कोई बना नहीं
अभी वक़्त है, अभी लौट जा

अभी साथ अपना, एक पल 
अभी संग अपना बेशक़ल
अभी रिश्ते सारे बेदख़ल  
अभी वक़्त है, अभी लौट जा

अभी रुख पे तेरे है रोशनी
अभी साँसों में ख़ुशबू तेरी   
अभी जी कहाँ तूने ज़िन्दगी 
अभी वक़्त है, अभी लौट जा

Saturday 10 December 2011

माना कि उसके जिक्र में अब वो कसक नहीं

माना कि उसके जिक्र में अब वो कसक नहीं 
लेकिन कशिश भी दिल से गयी आज तक नहीं

मेरी किसी क़िताब के पन्नों में छुपी है
कम आज भी हुई है उस गुल की महक नहीं

कहते हो तुम चमन में है बहार ही बहार
आयी मगर क्यूँ बादे-सबा मुझ तलक नहीं

चिलमन की ओर हर किसी निगाह की निगाह
कमबख्त! मेरे झुकते ही जाये सरक नहीं

वैसे तो अंजुमन में हैं शोखियाँ तमाम
इक सादा-हुस्न जैसी किसी में खनक नहीं

Thursday 8 December 2011

हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बिकती है

सुनते हैं कि  कुछ अरसा पहले, इस मुल्क़ में रहने वालों ने 
इसकी आज़ादी की खातिर, फ़ांसी के फंदे  चूम लिए
था अज़ब शौक़, थी अज़ब लगन, जो जान हथेली पे लेकर
कुछ गोली खाकर झूम लिए, कुछ कालापानी घूम लिए

था यही ख़्वाब बस आँखों में, कि मेरे वतन की नस्ले-नौ
किसी गैर कौम के पैरों तले, जाये ना कभी मसली-कुचली
अरमान यही एक दिल में था, कि मेरे वतन की नस्ले-नौ
बरबाद कभी ना हो पाए, ग़ैरों के गिराने से बिजली

इक उम्र तुम्हारी जैसी ही, इक उम्र हमारे जैसी ही
पाई थी उन्होंने भी लेकिन, कुछ तेरे लिए, कुछ मेरे लिए
इस मुल्क़ की मिट्टी पे अपने खूं की सुर्ख़ी से छाप गए
सतरंगीं  सपने यहाँ-वहां, कुछ तेरे लिए, कुछ मेरे लिए

इक उम्र ने अपना खून कभी, इसलिए बहाया था शायद 
ये ताजे पानी की झीलें, ये दरिया हमको मिल पायें
इक उम्र ने सांसों में अपनी बारूद की बू सूंघी शायद 
हर सुबह सुहानी ताजी हवा, मस्तानी हमको मिल पाए

कुछ लोग थे ऐसे जो अपनी मां के आंसूं भी भूल गए
इसलिए कि अश्कों का नाता, कोई अपनी आँख से हो ना कभी 
कुछ लोग थे ऐसे रिश्ता भी जो बाप से अपना भूल गए
इसलिए कि हम में से कोई भी, जुदा बाप से हो ना कभी

जो खून बहाया पुरखों ने, उस खून की रंगत काम आयी
जो जुल्म सहा था पुरखों ने उस जुल्म की वहशत काम आयी
हर बूँद पसीने की उनके,  दे कर के अपना मोल गयी
वो रातें जगती काम आयीं, वो दिन की दहशत काम आयी

अब मुल्क़ हमारा था अपना
और राज हमारा था अपना
थी जमीं हमारी अपनी और 
ये गगन हमारा था अपना

दो-चार दिनों सब ठीक रहा
दो-चार दिनों तक खेल रहा 
दो-चार दिनों तक रहा अमन
दो-चार दिनों तक मेल रहा

फिर शक की निगाहें उठने लगीं
फिर दिल में दरारें पड़ने लगीं
इस चमन की कलियाँ हुई जुदा
फिर क्यारी-क्यारी बँटने लगीं

सबसे पहले नेताओं की खादी का मोल लगा, फिर तो 
ईमान बिका, इंसान बिका, बिक गई हसरत, अरमान बिका
इस वतन की मिट्टी भी बेची, गर्दू-ए-वतन तक बेच दिया
अब देर नहीं है कुछ दिन में लगता है हिन्दुस्तान बिका

बस  लूट के अपनों को लीडर अपनी ही तिजोरी भरते रहे
कुर्सी से शुरू, कुर्सी पे ख़तम, बस ऐसी सियासत करते रहे
लाखों भूखे-प्यासे इन्सां सड़कों के किनारे मरते रहे
लाखों इन्सान यहाँ नंगे सज के चिथड़ों में फिरते रहे

बंजर मिट्टी में हाथों का दम जाया करते हैं दहकां
खेतों में पसीने के दरिये, उनके थे पहले, आज भी हैं
हर बार उगी हैं फसलें पर, बदलीं न कभी खुशहाली में
इफ़लास-जदा इस मुल्क़ के दह्कां थे पहले और आज भी हैं 

वो गन्दुम जो उसके खेतों में उगा था, उसको मिल ना सका
उसके बेटे भूखे ही रहे, रही बेटियाँ कम मलबूसों में
माज़ी है गरीबी ही उसका, फ़र्दा भी गरीबी ही होगा
इक लहज़ा फ़ना हो जायेगा, सरमाये की गलियों-कूचों में

इक शख्श और भी है अपनी, जो बेच के मेहनत जीता है
भूखी रातों में नींद की खातिर, बेबस पानी पीता है
मजदूर वो जिसने दिन भर पत्थर तोड़े, ईंटें ढोई हैं
हस्ती को बनाये रखने को, पल-पल मरता रहता है

बस ये ही नहीं लाचार दौरे-सरमाया से बल्कि लाखों
हैं और भी मुल्क की सड़कों पे, पेशा-ए-गदाई करते हैं
चाहे कितनी तरकीब करें, तस्कीं उनकी किस्मत में कहाँ
बेबस हैं फ़रेबे-ज़रदारी के सामने, क्या कर सकते हैं

और आखिर में हर बार वही, किस्सा दोहराया जाता है
घूंघट में लिपटी बेटी की चौराहों पे कीमत लगती है
अपनी ही नीलामी के लिए, ख़ुद जहाँ पे औरत सजती है
हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बिकती है...
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सुर्ख़ी : लाली 
गर्दू : आसमान
दहकां : किसान
इफ़लास-जदा : गरीबी के मारे
गंदुम: गेंहू
माजी : बीता कल
फर्दा : आने वाला कल
मलबूस : वस्त्र 
गदाई : भीख माँगना
ज़रदारी : दौलत  

Sunday 4 December 2011

कारोबार


ग़म को सुख के रंग में ढाला, सुख में रंज शुमार किया
सदियों से इंसान ने यूँ ही, अपना कारोबार किया
जी चाहा तो सहरा में भी बस्ती एक बसा डाली
जी चाहा तो बसे-बसाये गुलशन को बिस्मार किया
कभी मशालें बनकर इसने घर औरों के फूंक दिए
किसी रात फिर परवाने की शम्मा का क़िरदार किया
गाँव-गाँव नफ़रत की बातें, शहर-शहर दुश्मन चेहरे 
इक ने इक फ़रहाद ने फिर भी, इक शीरीं से प्यार किया
ग़म को सुख के रंग में ढाला, सुख में रंज शुमार किया
सदियों से इंसान ने यूँही, अपना कारोबार किया

Friday 25 November 2011

जो भी चाहे तू फैसला कर दे



जब भी अलफ़ाज गूंगे होते हैं
और एहसास बहरे होते हैं
वक़्त होता है बस तमाशाई
रूह का पोर -पोर दुखता है
मुसलसल दर्द का मकां दिल है
रंज भी मुख़्तसर नहीं होता

ऐसे आलम में मैं कहाँ जाऊं
ऐसी हालत में क्या मुझे राहत
कोई रिश्ता सदा नहीं देता
कोई एहबाब सूझता ही नहीं
मुझको मंदिर नज़र नहीं आते
कोई मस्जिद नहीं बुलाती मुझे

ऐसी हालत में सर झुकाता हूँ
दुआ में हाथ मैं उठाता हूँ
जो भी चाहे तू फैसला कर दे
बस कि अब तेरे पास आता हूँ.....

Sunday 20 November 2011

ओ भटकने वाले ठहर जा



ये सफ़र न होगा कभी ख़तम, न इसकी कोई शुरुआत है
ओ भटकने वाले ठहर जा, तेरे नाम ये हंसीं रात है


ये रवां-रवां सी ज़िन्दगी 
ये धुआं-धुआं सी रोशनी
ये कदम-कदम पे फ़ासले
ये दूर होते सिलसिले
मेरे पास आ, इन्हें भूल जा
मेरे गेसुओं में डूब जा
ये अदाएं घायल तेरे लिए
ये निगाहें पागल तेरे लिए
आ मुझे गले से लगा ले तू, ये प्यार की शुरुआत है


ये जाम सा छलका बदन
ये सर से पैरों तक जलन
ये उम्र की अंगड़ाइयां
ये जिस्म की परछाइयां
ये सुलगते दिल की करवटें
ये नज़र पे छाई सलवटें
ये दायरा मेरी बाँहों का
ये सिलसिला मेरी सांसों का
यही मान ले तेरे वास्ते मेरे इश्क़ की सौगात है

Wednesday 16 November 2011

उस पार, ऐसा हो

कभी खुद को मैं ढूंढूं इस तरफ इक बार, ऐसा हो
निगाहे-रूह तुझ पर हो टिकी उस पार, ऐसा हो

मैं राहे ज़िंदगी में जिनको पीछे छोड़ आया था
वो यादें सब की सब आयें कभी उस पार, ऐसा हो

मैं अक्सर डूब कर ही पार करता हूँ नदी दिल की
कभी कश्ती सहारे भी चलूँ उस पार, ऐसा हो

वो कुछ अशआर रिस कर गिर गए लब से कहीं मेरे
तेरे लब पे दिखाई दें मुझे उस पार, ऐसा हो

बहुत दिन से तुझे मैं दूर से ही चाहता हूँ, अब
लगूं खुल के गले तुझसे सरे-बाज़ार, ऐसा हो

किनारे पर खड़े हो के तमाशा देखने वाला
कभी आके मिले मुझसे यहाँ मंझधार, ऐसा हो

Thursday 3 November 2011

क्यूँ वो तुम्हें याद रहीं?

अपने आँगन में खिली धूप की स्याही लेकर
उसने कुछ ख़त भी लिखे होंगें, तुम्हें याद नहीं?

कितनी शामों को पिघलते हुए सूरज की तरह
उसकी उम्मीद जली होगी, तुम्हें याद नहीं?

सुबहा उठके जो चटके हुए ख़्वाबों की किरच
उसकी आँखों में चुभी होगी, तुम्हें याद नहीं?

पर यूँही हँस के कही आख़िरी बातें उसकी
क्यूँ ना तुम भूल सके, क्यूँ वो तुम्हें याद रहीं?

Tuesday 1 November 2011

दरीचे दिल के खुल पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता

दरीचे दिल के खुल पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता
उसे हम दोस्त कह पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता 
नहीं अब याद कुछ, किस  मोड़ से भटके थे हम रस्ता  
लौट के घर को जा पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता 
बहुत अब दूर आ निकले हैं हम राहे-मुहब्बत में
अजनबी तुम से मिल पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता 
वो कुछ बीते हुए लम्हे, वो कुछ बीती हुई घड़ियाँ
नज़र में आज  लहरायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता 
कि जिन लहरों से हम कश्ती, बचा लाये थे मुश्किल से
उसी दरिया में तैरायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता 
बहुत ही दूर तक पसरी हुई है दिल में ख़ामोशी
उसे सब को सुना पायेंगें फिर, ऐसा नहीं लगता 

Monday 24 October 2011

दीवाली मुबारक़ !!







ख़्वाब ग़म के धुंए में गुमशुदा हैं सारे
बेबसी में तमाम आरजुएं खो भी चुकी
अज़ब तारीकियों का चार सिम्त आलम है
थकी हुई थीं, बुझकर शमाएँ सो भी चुकी

कान में भूख सांय-सांय शोर करती है
आँख में जागती नींदों का धुआं सो भी चुका
सुलग रही है आंत फुलझड़ी की मानिंद
आतिशबाजियों का खेल वहां हो भी चुका

उस गली क्यों दीवाली हो के नहीं जाती है
अँधेरा जिस गली सुबहा पे आके छा भी चुका
किसी ख़ुशी की शक्ल, एक रोशनी की किरण
आये, ऐसी उम्मीदों का दिया बुझा भी चुका

छोड़ो! मुश्किल सवाल है, ज़वाब क्यूँ ढूंढें?
अपने बच्चों के लिए हम पटाखे ला भी चुके
रंगोली भर चुकी हैं घर की औरतें, अब तो
हरेक मुंडेर पे घर की दिए जला भी चुके

दीवाली मुबारक़ !!










Wednesday 19 October 2011

ताकि वर्ष भर दीवाली हो !

घनीभूत हो उठते अन्धकार में
दूर कहीं एक ज्योति:स्फुर्लिंग ने 
तम-आवरण को चीर कर सर उठाया
और सहस्रों प्रकाश-वीथिकाएँ जन्म ले बैठीं !

एक अकेली आलोक-रश्मि 
और अन्धकार से जूझने की इतनी जीजिविषा !
मानो एक आवाहन ..
                                 है निखिल विश्व को उदबोधन
                                कर दो समस्त तम का शोधन...

बस,
अमावस की कालिमा को पल भर में विलोपित करती
कितनी उर्मिलायें तैल-पात्रों में झिलमिला उठीं ?
ज्ञात नहीं 
जैसे अमावस की रात्रि में दसों दिशाओं में सूर्योदय हुआ हो !
यही तो दीपावली की गरिमा, उसका सौंदर्य है !!

आज कोई कोना ऐसा नहीं 
जो प्रकाश-निधि-हीन हो
क्या मनु-पुत्र आज निशा होने ही न देगा?

'तमसो मा ज्योतिर्गमय'
महाप्राण से ये निवेदन - आज अर्थ खो बैठा है
किधर चलें - नहीं सूझता,
सर्वत्र तो प्रकाश बिखरा है...

तो क्या करें - ठहर जाएँ?

कदापि नहीं.
निमिष भर के इस उत्सव को अंतिम सत्य तो नहीं कह सकते.
अभी चलना होगा....

प्रश्न- कहाँ?
उत्तर - मौन

दूर कहीं .......धूल सी उड़ी  
नन्हे क़दमों की आहट...
कलुष-रहित ह्रदय में 
उष्ण-स्नेह-स्पंदन लिए
वह नन्हा
जिधर जा रहा है - वहीँ चलें

अपने अन्तर्तम की सारी कालिमा, सारा द्वेष समेटें
और छोड़ आयें....
दूर..... क्षितिज के उस पार
ताकि वर्ष भर दीवाली हो !

कल्पना ही सही, कैसी है?

Monday 10 October 2011

खुले-आम हो रही है, इशारों की बात है!


अंधों से गुफ्तगू है, नज़ारों की बात है 
खुले-आम हो रही है, इशारों की बात है!

छोटा सा मुद्दआ भी हल हो नहीं है पाता
फिर भूख-प्यास प्यारे, हजारों की बात है!

दुल्हन का ज़िक्र कैसा, नीलाम पे है डोली 
इस मुल्क में फ़क़त उन, कहारों की बात है! 

दरिया सिमट के जिनकी तामीर हो रही है
बस्ती की हद पे छाते, किनारों की बात है!

हम सर झुका दें जाके सज़दे में, ऐसी कोई 
रूहें यहाँ नहीं बस, मज़ारों की बात है!


अब क्या कहें कि बातें, कुछ बोलती नहीं हैं
ख़ामोशियों से सुनना, पुकारों की बात है !

Saturday 24 September 2011

ज्यों मेरी गुजरी हुई उलझन में वो शामिल न था



आजकल बेवास्ता मिलता है वो कुछ इस तरह
ज्यों मेरी गुजरी हुई उलझन में वो शामिल न था 


रेशमी लफ़्ज़ों से बुन दी उसने ख्वाबों की कपास 
मुझको क्या मालूम इन ख़्वाबों से कुछ हासिल न था

आख़री  दम  था  नजर  के  सामने  चेहरा  तेरा 
आशना होगा  मेरा, ग़र  तू  मेरा  क़ातिल  न था 

रूठ कर  वापस  समन्दर के  चले जाने के बाद 
बारिशों को इस कदर, तरसा कोई साहिल न था

Wednesday 21 September 2011

किसीको एक जरूरी बात किससे कहनी है?



न पूछो जिस्म में ये रूह कैसे रहती है
किराया उम्र के लम्हों के दम पे भरती है

बड़े सलीके से पहने हुए दुपट्टे को
मेरी गली में अब भी एक लड़की रहती है

कहीं जब एक भी खिड़की खुली नहीं मिलती 
बड़ी  बेचारगी  से  भूख  पाँव  रखती  है

किसीको एक जरूरी बात किससे कहनी है?
रात भर इक सदा गलियों में शोर करती है

Tuesday 13 September 2011

सितारे कुछ तो बात करते हैं


जाने क्या मालूमात करते हैं
सितारे कुछ तो बात करते हैं

हमें अपना वजूद जंचता है
ज़माने से जुदा सा लगता है
मगर औकात क्या है इंसा की
सितारे सब हिसाब करते हैं
सितारे कुछ तो बात करते हैं

आज हम किस मुकाम पर पहुंचे
ख़ास है या कि आम पर पहुंचे
मगर सबकी मदद सम्हलने में
बढ़ा के अपना हाथ करते हैं
सितारे कुछ तो बात करते हैं

राज कोई छुपा तो रक्खा है
मुकद्दर मेरा-तेरा लिक्खा है
उम्र की तख्तियां, कलम लम्हे
नसीबों को दवात करते हैं
सितारे कुछ तो बात करते हैं

जाने क्या मालूमात करते हैं
सितारे कुछ तो बात करते हैं

Wednesday 31 August 2011

गुजर गए कि कोई मोड़ रहगुजर में नहीं ..




गुजर गए कि कोई मोड़ रहगुजर में नहीं
मज़ा इसीलिए शायद कोई सफ़र में नहीं

रात भर जेह्न में आतिशफशां दहकता रहा
बूँद भर दाग़ रोशनी का पर सहर में नहीं

बचपना खो गया है नस्ले-नौ का, देखता हूँ
कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा, मिला शहर में नहीं

दुआएं मांगने में जो सुकून था, उतना
जाने क्यूँ चैन उन दुआओं के असर में नहीं

Thursday 25 August 2011

शबनमी सी रात के आसार हैं, मत रो अभी


कुछ देर रुक जा

चंद लम्हों में बिखर जाएगी महफ़िल
लोग अपनी राह लेंगें
सिर्फ़ थोड़ी देर की है बात बाक़ी, 
मान कहना

रात भर जब ओस की बूंदें उतर कर
सुबह के सूरज की लाली को समेटे
फैल जायेंगीं जमीं पे, जिस तरह 
अनगिनत भीगी हुई आँखों का मंज़र 

क्यूँ भला ये आँख नम है,
क्यूँ नज़र से झांकते हैं लाल डोरे?
फिर नहीं पूछेगा कोई, देखना 
रात भर रोये हो क्या !

अलविदा अश्कों को कहने की घड़ी आने को है
उस घड़ी ना तुम अकेले 
और ना कोई साथ होगा 
जी भर सिसकना ...........

शबनमी सी रात के आसार हैं, मत रो अभी



Thursday 28 July 2011

आज भी ये रास्ता है



                   आज भी ये रास्ता है, और मैं हूँ

कल भी गुजरे थे मेरे मांदा कदम इस राह से
कल भी मैंने  ठोकरें दो-चार इस के नाम की
आज भी  बिखरे  हुए पत्तों  ने  पहचाना मुझे
चरचराती  ख़ामोशी मैंने सुनी फिर शाम की

आज भी डूबे हो जाने किन ख़यालों में, कहो
मुझसे ये पूछा किसी पत्ते ने फिर गिरते हुए
रास्ते  भर, रास्ते  से  आज  फिर  बातें हुई
रास्ता कहता रहा  और मैं फ़कत सुनते हुए

                  आज भी ये रास्ता है, और मैं हूँ
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मांदा - थके  
(28.07.11)

Friday 22 July 2011

कैसा दोस्त है! पल भर में बदल जाता है


मैं जब भी हाथ बढ़ाता हूँ, पलट जाता है
कैसा दोस्त है! पल भर में बदल जाता है

मैं हर पिछले गिले को दफ़्न करना चाहता हूँ
उसकी आँखों में नया तंज उभर आता है

ये दुनिया गहरी वादी और मैं बहती सी नदी
हंसीं मंजर दिखाई दे के बिछड़ जाता है

किसके आने का इंतज़ार भला है तुझको ?
भरी दोपहरी में क्यूँ राह झांक आता है

वो जब आता है, ख़ाली हाथ चला आता है
ज़माने भर की पर तकलीफ़ दिए जाता है

सब को मत दोस्त समझ, ख़ुद को ये फ़रेब न दे
पहले आवाज दे के देख, कौन आता है ?

वो जो हंसता है खुले दिल से हर महफ़िल में
जाने क्यूँ अपने घर इतना उदास आता है ?
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तंज - ताना

(21.07.2011)

Tuesday 19 July 2011

दरिया साहिल तलक नहीं आया


तेरे जाने के बाद चैन मिला
फिर यहाँ कोई भी नहीं आया

तूने जो देख कर नहीं देखा
फिर कोई देखने नहीं आया

उदास, उजड़े मकां-ए-दिल में
फिर कोई भी मकीं नहीं आया

कोई बीता हुआ पैगामे-वफ़ा
खो गया, मुझ तलक नहीं आया

काफ़िले मिहन के चले आये  
क्या हुआ, तू यहाँ नहीं आया

आया तो दूर से ही लौट गया
दरिया साहिल तलक नहीं आया

(19.07.2011)

Sunday 17 July 2011

ये आवारा सी नज़्में

बिना वजह
बे-वक़्त
गैर-इरादतन
बूँद-बूँद अंधेरों में
बिना बुलाये
कुछ नज़्में इस तरह उतर आती हैं ....

कुछ बीते लम्हे
कुछ पुरानी आवाजें
कोई पिछला दर्द
गुज़री हुई तक़लीफ़
वो नश्तर 
सब नजर आते हैं उनमें 

भटक रही हैं भीतर बहुत दिनों से मगर 
अब इनकी किसी को ज़रूरत नहीं है शायद 
ये आवारा सी नज़्में ......
इन्हें कहाँ रक्खूं?
क्या करूं इनका ?

Saturday 16 July 2011

कोई ग़म अब नया आये तो अच्छा भी लगे

कोई ग़म अब नया आये तो अच्छा भी लगे
ग़म-ए-दिल तुझसे नाता अब पुराना हो गया

पड़ेगा छोड़ना अब तो तुझे दामन मेरा
मेरे दिल में तुझे आये जमाना हो गया

गुजश्ता-वक़्त में तुझसे लगाया होगा दिल
मगर अब आम सा नजरें चुराना हो गया

मसलसल तिश्ना-लबी है के जबसे तू आया
बेकली को बड़ा मुश्किल छुपाना हो गया

तेरी मौजूदगी के  सब्त ना हो जाएँ निशां
कोई ग़म और का ये दिल ठिकाना हो गया

हरेक मौजे-नफस अब तो डुबाना चाहती है
बड़ा दुश्वार साहिल को बचाना हो गया
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गुजश्ता - बीते हुए 
मसलसल - लगातार 
तिश्ना-लबी - प्यास 
बेकली - बेचैनी 
मौजे-नफस - सांस की लहर 

(04-07-89)

Friday 15 July 2011

Mumbai Blast 13.07.2011

टूटी खिड़कियाँ कुछ दिनों में बदल दी जाएँगी..
लहू के दाग हमेशा न रहेंगे...
सड़क धो-पुंछ कर साफ़ हो जायेगी,
वैसे भी ये बारिशों के दिन हैं...

अभी कुछ दिन तक हवा में बारूद और मांस की बू रहेगी...
फिर समंदर की खुशनुमा बयार आएगी...

आपस में घालमेल हो चुके बदन के टुकड़ों का
सामूहिक चिताओं में हो चुका सेकुलर दाह-संस्कार
कुछ दिन नजर के सामने रहेगा...

कुछ दिन अस्पताल में घायलों के घावों से ..
टपकती मवाद की बूंदों में टीवी की खबरें लपलपायेंगी ...

आंसूं ब्रेकिंग न्यूज़ हैं...
कल किसी और के दिखाए जायंगे....

टीवी एंकरों की नकली सोज़ भरी आवाजें...
कल कोई नया मुद्दा उठाएंगी...

हमारे कर्णधारों को परेशान होने की कोई ज़रूरत नहीं.....
लोग नहीं मरेंगे को तो क्या उन्हें कोई देखेगा नहीं?
उनके चेहरे तो किसी न किसी बहाने टीवी पे आ ही जायेंगे...

और इसमें शर्मिंदा होने वाली क्या बात है....?

Tuesday 12 July 2011

कब आओगे ?



मेरी तकलीफ बसती है मेरी आँखों में 
और दिखती है 
जब बिजलियाँ कौंध जाएँ - बाहर 

मेरी आवाज यूँ तो रुंधी सी रहती है
मगर देती है जुबान तूफां को
कभी कभी

दिखती है चुभन
भरोसे की दरकती दीवारों में

आंसू हैं, ढलक उठते हैं

इस नज़्म के तहखाने में उम्मीदों का एक आसमान
दफ़न है  कबसे

जमीन उधडी पडी है
जज्बातों की तरह

अभी भी इंतज़ार है तुम्हें किस पल का?


कुछ हो भी नहीं कि अब मेरे ..?

(12.07.2011)

Tuesday 5 July 2011

हाँ, यही भूल मैं कर बैठा

किसी नयन से बहते आंसू पौंछ दिए हैं जब से मैंने
सच कहता हूँ उसी घड़ी से मैं जग में बदनाम हो गया

यह नहीं जगत की रीत किसी निर्बल का हाथ बँटाओ तुम
ऐसा न कभी भी हो सकता दुखियों की पीर घटाओ तुम
कर भृकुटि वक्र, तुमको जन-जन देगा ताने, यह याद रखो
क्या तुम को अधिकार किसी अबला के कष्ट मिटाओ तुम
हाँ, यही भूल मैं कर बैठा 
नयनों में आँसूं भर बैठा
सुख की बहती सरि छोड़ कहीं 
मैं दूर किनारे पर बैठा 
कहता हूँ हाय ह्रदय तेरी करुणा का क्या परिणाम हो गया

मैंने अंतस में भरी हुई करुणा के दीप जलाये थे
पथ सुगम किसी का हो जाये इसलिए फूल बिखराए थे
दुःख में डूबी मानवता को मिल जाये सहारा जीने का
यह सोच ह्रदय-तल पर मैंने नन्हे बिरवे उपजाए थे
था नहीं मुझे ये ज्ञात मगर
आशाओं का सिन्धु-प्रखर
भी भर न सकेगा यह मेरी 
रीती रह जाएगी गागर
जीवन-पट की स्वर्णिम आभा का वर्ण गहर कर श्याम हो गया

पर रोक सके पग-गति मेरी दुनिया के बस की बात नहीं
मैं अरे अमर-पथ का राही, क्या रुकूं हजारों घात सही
मैं तृषित-धरा पे नयन-नीर से सुख-वृष्टि करने वाला
मेरी दृष्टि में एक समान, जैसा दिन है, है रात वही
आओ तुम भी दो-चार कदम
है  नहीं  राह  कोई  दुर्गम
कर लो दृढ़-संकल्पित मन को
हो जाये सफलता का उदगम
अब तो दिन रात प्रहर आठों पथ पर बढना ही काम हो गया


(03.08.1989)

Friday 1 July 2011

शमीम अपने भी नाम की आयी.....

खड़ा हुआ है वो उस किनारे नदिया के
और इस किनारे मुझसे बात करता है
अपनी - अपनी हैं सालिम  कश्तियाँ लिए हर एक 
सुकूं  का आलम है 

जाने क्यूँ इक सवाल पूछ रहा है मुझसे
कि तुमने भी कभी जुर्रत हसीन की थी कभी -
और दरिया में पाँव डाले थे?

शायद भूल गया है कि मैं भी था एक दिन
उसी किनारे पे ठहरा हुआ, बहुत दिन तक  


आज मैं ख़ुद को इस किनारे अगर पाता हूँ
डूबा एक बार तो मैं भी जरूर होउंगा !
पाँव का भीगना क्या होता है?

लहर वो तेज थी, हल्की थी या नहीं थी कोई 
बीच दरिया की लहरों का नाम क्या लेना?
मायने सिर्फ किनारों में ढूंढें जाते हैं 

कोई पिछली नमी बाकी कहाँ तलक रहती  
पैरहन सूख चुका है कब का, 
नयी हवाओं के झोंके कभी रुके हैं भला ?


शमीम अपने भी नाम की आयी
और ठहरी है मेरे पास आके

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सालिम - सुरक्षित 
पैराहन - वस्त्र 
शमीम - बयार 

Thursday 30 June 2011

कली


सुना तुमने?

कि सांस लेने को जूझती-हांफती कली
हार कर चुक गयी
लेकिन मैं नहीं मानता - नहीं मानूँगा
क्योंकि मैंने कली को हर वक़्त, हर जगह देखा है

जेठ की दुपहरी में
चूल्हे के पास
लकड़ियों से उठते
कडवे धुएं से अंधी हो उठती आँखों में
राख की प्रतिमा सा उभरते देखा है
कली - कहीं भी हो सकती है

तृण-संकल्नार्थ,
प्रातःरश्मि की वंशी पर झूमती
एक के पीछे एक - बनाती निरीह कतार
उन नव-यौवना पर्वत बालाओं को
अनछुआ-पारद-सौंदर्य बिखेरते देखा है
कली - यहाँ भी तो हो सकती है

पार्श्व से उठती ढोलक की थाप पर
उन कदमों की गति-यति में -
उन बाद के पहरों में,
कली - यहाँ भी तो हो सकती है

मूक प्रणय निवेदन करते
सलज्ज - सजल नयनों के उठने - गिरने में
जबकि होंठ चुप हैं -
कि उन पर आ ठहरी है लज्जा -
प्रियतम-सामीप्य से,
प्रेमानल-तप्त धड़कनों में सुना हैं मैंने
कली - कहीं भी हो सकती है

कर्णभेदी शब्द करती दामिनी हो - बाहर
टपकते छप्पर में जमीन पर बिछी - अवश
चिन्हुँकती-सुबकती
कली - यहाँ भी हो सकती है

बेटी के विवाह की चिंता में
पिता के माथे पर आ उतरी विषाद- ज्यामिति में
भाई की राह तकती किन्हीं राखी थामे कलाइयों में

तुम देखो तो सही - आस-पास मेरे तुम्हारे
कोई भी हो सकती है, कहीं भी हो सकती है
बहुत आसान है ढूँढना उसको

क्योंकि
कली एक -
                 घुटन है
                 रुदन है
                 पीड़ा है
                 विवशता है
                 चीख है
                 आंसूं है
                 हिचकी है
                 .............................. और कभी-कभी इस सबसे बग़ावत है.


(The poem was written around 1991-92 after reading Krishnkali - a novel by Shivani)

Sunday 19 June 2011

एक नज़्म और लिख के जा.....

जाना अगर ज़रूरी है 
तो एक नज़्म और लिख के जा
मेरी ख़ातिर 

उसे पढूं 
और पढ़ के रखूँ 
दिल के इतने करीब  
कि उठती-बैठती छाती की गर्म साँसों में
जी उठे उस पे लिखा 
हर्फ़ एक-एक कर के
मेरे एहसास का घूंघट उतार के रख दे
और छू जाए मेरे वजूद को ऐसे 
मुझे लगे कि अपनी है ये सुहाग की रात
और फिर उम्र भर उस नज़्म से निकाह पढूं ....... 

एक नज़्म और लिख के जा 
जिस पे हक़ हो मेरा


Saturday 11 June 2011

तुम्हें जो जानती थीं पर वो उंगलियाँ न रहीं

मेरे चमन को फूंकती वो बिजलियाँ न रहीं
मेरे दयार-ए-रोशन की दास्ताँ न रहीं 

दिखा करती थीं अक्सर अब मगर यहाँ न रहीं
बड़ी हसीन सतरंगीं वो तितलियाँ न रहीं

दर्द पिघलने तलक ये चिराग़ जलते रहे
और उसके बाद ये आँखें धुंआ-धुंआ न रहीं

बस कि इक बार चश्मे-नम ने पलट के  देखा
जो भी उससे शिकायतें थीं, दरमियाँ न रहीं

आज कुछ दोस्तों के साथ बोल-हंस आया 
बहुत दिनों से थी दिल में, उदासियाँ न रहीं

फिर से एक बार तुम्हें आज छूना चाहता हूँ 
तुम्हें जो जानती थीं पर वो उंगलियाँ न रहीं

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चश्मे-नम - भीगी आँख
(11.06.2011)

Thursday 9 June 2011

रुद्रपुर 14 साल बाद 2010 में




वो प्लाट कहाँ है जिसमें हमने
ईंट पे गिट्टी रख के
पिट्ठू गरम किया था...
मेरे दोस्त, अभी भी याद है मुझको
बहुत तेज लगती थी
वो सतरबड़ी लाल गेंद

वो मकानों के बीच से हो कर
गुजरते टेढ़े-मेढ़े रास्ते,
सीधे जाते थे स्कूल तक
अब शहर में सीधी-सीधी गलियां हैं
और सब कुछ हो गया है दूर-दूर

अब कोई 'लाले की औलाद'
जून में साढ़े तीन बजे
घर के बाहर चुपके से
आवाज नहीं लगाती
"मैं बल्ला ले आया, गेंद ले आ"

अब किसी माँ को फ़िक्र नहीं
कहीं मेरा लाल धूप में
निकल तो नहीं भागेगा
खेलने बाहर, क्यूंकि
अब जगह ही नहीं है

कभी लड़के जिन गलियों में
गिल्ली-डंडा खेलते थे
और लडकियां वो स्टापू
या कभी मिलके छुपन-छुपाई
वहां बाज़ार फ़ैल गया है
बचपन छुप गया है

गाँधी पार्क में एक साथ
दस टीमें खेलती थी क्रिकेट
अपनी-अपनी पिच पे
अब एक उदास फव्वारा
कुछ बीयर की बोतलें
और बेतरतीब उगी हुई घास
ना बैटिंग, न बौलिंग, न फील्डिंग

अब झा इंटर कॉलेज
शहर से बाहर नहीं लगता
जनता इंटर कॉलेज
शहर के अन्दर खो गया है
भगत सिंह चौक
भीड़ से घबरा के
कहीं दुबक गया है

अब कोई किसी से रुक कर
बात नहीं करता
सब भाग रहे हैं

अब कोई अपने घर की
दीवार पे बच्चों को
चॉक के विकेट नहीं बनाने देता

अब कारें हैं उन गलियों में
जिनमें साईकिल चलती थी

पहले पुलिस होती थी
सिर्फ पुलिस चौकी में
अब हर जगह मौजूद है

मैं पूरे बाज़ार से गुजर आया
किसी ने नहीं पहचाना मुझे
किसी ने नहीं टोका
गलत ही सही, नाम से नहीं पुकारा -
और मैंने यहाँ इक्कीस साल गुजारे थे!

ये शहर बड़ा हो गया है
लोग छोटे हो गए हैं.....



(09.06.2011)