Tuesday 5 July 2011

हाँ, यही भूल मैं कर बैठा

किसी नयन से बहते आंसू पौंछ दिए हैं जब से मैंने
सच कहता हूँ उसी घड़ी से मैं जग में बदनाम हो गया

यह नहीं जगत की रीत किसी निर्बल का हाथ बँटाओ तुम
ऐसा न कभी भी हो सकता दुखियों की पीर घटाओ तुम
कर भृकुटि वक्र, तुमको जन-जन देगा ताने, यह याद रखो
क्या तुम को अधिकार किसी अबला के कष्ट मिटाओ तुम
हाँ, यही भूल मैं कर बैठा 
नयनों में आँसूं भर बैठा
सुख की बहती सरि छोड़ कहीं 
मैं दूर किनारे पर बैठा 
कहता हूँ हाय ह्रदय तेरी करुणा का क्या परिणाम हो गया

मैंने अंतस में भरी हुई करुणा के दीप जलाये थे
पथ सुगम किसी का हो जाये इसलिए फूल बिखराए थे
दुःख में डूबी मानवता को मिल जाये सहारा जीने का
यह सोच ह्रदय-तल पर मैंने नन्हे बिरवे उपजाए थे
था नहीं मुझे ये ज्ञात मगर
आशाओं का सिन्धु-प्रखर
भी भर न सकेगा यह मेरी 
रीती रह जाएगी गागर
जीवन-पट की स्वर्णिम आभा का वर्ण गहर कर श्याम हो गया

पर रोक सके पग-गति मेरी दुनिया के बस की बात नहीं
मैं अरे अमर-पथ का राही, क्या रुकूं हजारों घात सही
मैं तृषित-धरा पे नयन-नीर से सुख-वृष्टि करने वाला
मेरी दृष्टि में एक समान, जैसा दिन है, है रात वही
आओ तुम भी दो-चार कदम
है  नहीं  राह  कोई  दुर्गम
कर लो दृढ़-संकल्पित मन को
हो जाये सफलता का उदगम
अब तो दिन रात प्रहर आठों पथ पर बढना ही काम हो गया


(03.08.1989)

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