Monday 19 November 2012

चुपचाप बह रहा है, इस झील का ये पानी,

नैनीताल के चाहने वालों के लिए ... (college days)


चुपचाप बह रहा है, इस झील का ये पानी, 
इसका न कोई किस्सा, कोई नहीं कहानी
नन्हें से ये कदम है, स्कूल जा रहे हैं
कुछ दूर दौड़े-भागे, लो फिर से चल रहे हैं
सन्डे का आज दिन है, निकले हैं ग्रुप बना के
नीले, हरे औ भूरे, ब्लेज़र चमक रहे हैं
नौ बीस बज चुके हैं, अब तो उठ जा साले
क्लासें तुम्हें मुबारक, भई हम तो सो रहे हैं
घोड़ों की टप-टपा-टप, जल्दी से खिड़की खोलो 
आहा!! सुबह-सुबह ही टूरिस्ट आ रहे हैं
अब शाम हो रही है, है माल रोड जाना
तल्ली से मल्ली जाके, क्या दिन गुजर रहे हैं
नावें थिरक रहीं हैं, किश्ती मचल रहीं हैं 
बच्चे, जवान, बूढ़े, पानी छपक रहे हैं
हाथों में हाथ थामे, टूरिस्ट मॉल  पर हैं
उल्फत वही पुरानी,  चेहरे बदल रहे हैं
एसआर-केपी-लंघम, मक्का भी और मदीना
हाजी नए-नए हैं, हज कर के आ रहे हैं 
हनुमान जी भला हो,  अपने इसी बहाने
मंगल के दिन तो देखो अच्छे ही कट रहे हैं
रिश्ते बदल रहे हैं, यारी बदल रही है
नेतागिरी के जज्बे उठ-उठ के छा रहे हैं
लेना न एक देना, हल्ला मचा रहे हैं
किस-किस का टेम्पो ऊंचा, ये कर के आ रहे हैं
अब बर्फ गिर गयी है, बत्ती है और न पानी
पूछो न टॉयलेट के, क्या हाल चल रहे हैं
दाढी बता रही है, टेंशन बढ़ी हुई है
दिखता नहीं क्या तुमको? एक्जाम आ रहे हैं 
इंग्लिश की गाईड यारों, हिंदी में तुम दिला दो
वर्ना तो फेलियर के आसार दिख रहे हैं
And these are some other memories …….
मंदिर के पास गहरे, पानी में कोई डूबा
एक्जाम के नतीजे, कैसे निकल रहे हैं
अब थक चुके कदम है, चढ़ते हैं धीरे-धीरे
ढलती उमर है उन की, वो  घर को जा रहे हैं
बस धूप तापते हैं, बेटा हैं संग न बेटी
आते नहीं हैं मिलने, करीयर बना रहे हैं
होटल नए बने हैं, कुछ पेड़ तो कटे हैं 
अपनी जड़ें मिटा कर, किस को बुला रहे हैं
चुपचाप बह रहा है, इस झील का ये पानी, 
इसका न कोई किस्सा, कोई नहीं कहानी

Sunday 18 November 2012

कमी इज़हार में मुझसे कहीं रही होगी


कमी इज़हार में मुझसे कहीं रही होगी
मिरे जो नाम उसने एक भी तो रात न की

ग़म जुदा होने का होता, अफ़सोस न था
ग़म यही है कि उसने तो मुलाक़ात न की

तमाम रात दिवाली के दिए जलते रहे
तमाम रात अंधेरों ने मुझ से बात न की

Thursday 11 October 2012

इतना ही बहुत है?


वो पौधे जो क्यारी में एक साथ पलते हैं
जहाँ उनके पत्ते आपस में गुंथ कर 
कुछ कहानी सी बुनते हैं

बड़े होके आपस में मिल पाती है,
केवल उनकी छाया.
जब जब हवा चलती है 
तो दोनों की छाया 
हिलती  हैं - मिलती हैं
मानों काँधे पे रख के सर 
फिर बतला लेती हैं - 
अपना दुःख, अपना सुख

शाम ढली और छाया गुम
अपने आप में गुम-सुम

इतना भी बहुत है 
या 
इतना ही बहुत है?

Tuesday 9 October 2012

इंतज़ार के उस टूटते पुल पे मिलना



इंतज़ार के उस टूटते पुल पे मिलना
ये इत्तिफ़ाक था या फिर मज़ाक था कोई 

काश तू मुझसे मिला होता किसी सहरां में
ये ही कह देते ज़माने को, अब वीरानों में
हम मिले तो हैं, पर खुश्क हो चुका कब का
अपनी उल्फ़त का लहू वक़्त के थपेड़ों से
के बस अब हाथ मिला सकते हैं कुछ ऐसे
देखने वाला कुछ समझे भी और समझ न सके.

काश तू मुझसे मिला होता किसी मेले में
बूढों, बच्चों औ' जवां उम्र के इक रेले में
साथ होके भी हमें साथ कोई क्या कहता
कितनी होती है भीड़ चूड़ियों के ठेले में !
किस के हाथों में किस का हाथ सरसरा जाये
देख भी ले तो कोई क्या है, देखता जाये

काश तू मुझसे मिला होता ऐसी राहों में
जहाँ क़दमों का पता है ना गिनतियाँ सर की
तमाम लोग हैं के बस चले ही जाते हैं
देखने वाला क्या जाने, अगर वो देख भी ले
ये लोग इस तरफ आते हैं या के जाते हैं

ऐसी जगहों पे मिलते तो कितना अच्छा था 
तू मुझको छोड़ के आसानी से जा सकता था
छुडा के हाथ जब चाहे, पलट भी सकता था
देखने वालों की आँखों से बच भी सकता था

मगर मैं क्या करूं के इंतज़ार का ये पुल
जहां पे मैंने अपनी उम्र का बड़ा हिस्सा
कुछ इस तरह बिताया है कि मेरी तलाश
कहीं भी जाये, यहीं आके थम सी जाती थी
मेरी तलाश यहीं पे सुकून पाती थी

इंतज़ार के उस टूटते पुल पे मिलना
ये इत्तिफ़ाक था या फिर मज़ाक था कोई

अगर था छोड़ के जाना तुम्हें और एक बार
मेरी तलाश के दर पर तो नहीं आना था 
इंतज़ार के उस टूटते पुल पे मिल कर
साथ चलना था या  साथ डूब जाना था !

Thursday 27 September 2012

वो क़दम जो मंजिल के मुन्तज़िर रहे बरसों

वो क़दम जो मंजिल  के मुन्तज़िर रहे बरसों
वो क़दम जो रस्तों  को नापते रहे बरसों

जिनके साथ राहों का ऐसा दोस्ताना था
देर तक गुजरना था, दूर तलक जाना था

रास्तों की छाती पर दस्तकों सी आवाजें
या कहो कि क़दमों की थके-पाँव परवाज़ें

एक दिन हमेशा ही मंजिलों तक जाती हैं
देर से सही मंजिल उनको मिल ही जाती हैं

हर क़दम सिकंदर है, हर क़दम की हस्ती है
जश्ने-ताजपोशी में देर हो तो सकती है

Monday 24 September 2012

ये दिल्ली की साँसों में अटकी सी यमुना


ये दिल्ली की साँसों में अटकी सी यमुना
ये गंदला सा पानी, ये जहरीली यमुना
ये सूखे कनारों में छिपती सी यमुना
... ... ... ये यमुना कहीं खो ना जाये किसी दिन

ये यमुना जो महलों को छू के थी बहती
जहां शामो-सुबहा थी चिड़ियाँ चहकती
जहां गायें  वंशी की धुन पे थिरकती
... ... ... ...ये यमुना कहीं खो ना जाये किसी दिन

ये यमुना जो खुद में समेटे है गीता
अजानों में घुल के जहां वक़्त बीता
सबद-वाणियों  ने जहां दिल को जीता
... ... ... ...ये यमुना कहीं खो ना जाये किसी दिन

हिमालय की बेटी, ये गंगा की बहना
ये यमुना जो ताजो-तखत का थी गहना
सुनो आज कुछ चाहती है ये कहना
... ... ... ...ये यमुना कहीं खो ना जाये किसी दिन

किनारों पे मेरे मकानों का उगना
मेरे बहते पानी में सीवर का मिलना
मेरा बह के रुकना औ' रुक-रुक के बहना
... ... ... ...ये यमुना कहीं खो ना जाये किसी दिन

कोई तो बढे, कोई तो आगे आये
कोई इस शहर, इस नदी को बचाए
कोई इस रुकी धार को फिर बहाए
... ... ... ...ये यमुना कहीं खो ना जाये किसी दिन

Sunday 23 September 2012

बेचैन हसरतों का हर सांस पे दखल है


रूह में खला है, एहसास में खलल है
बेचैन हसरतों का हर सांस पे दखल है

जीने की राह तन्हा, मरने की राह वीरां
चौरास्तों पे फिर क्यूँ इतनी चहल-पहल है

पल में उदासियाँ हैं, पल में है शादमानी
दुनिया है क्या ये रंजो-ग़म की अदल-बदल है

ता-उम्र आशना दिल होने से रोका हमने
कर दो मुआफ़ दो-एक लम्हों की ये चुहल है

Tuesday 7 August 2012

अपनी-अपनी ख्वाहिशें


दबी रहती हैं ख्वाहिशें 
कई बार मोड़ कर रखे हुए उस ख़त की तहों में 
जिसे आख़िरी तो नहीं होना था 
लेकिन 
जिसके बाद कोई ख़त नहीं आया.

लड़कियाँ  इमोशनल होती  हैं
संभाल  कर खोलती हैं उस ख़त की एक-एक तह को
और इंतज़ार की भाषा में बार-बार पढ़ती हैं
उन ख्वाहिशों को,
जो हर बार आंसुओं में डूब कर मर जाती हैं.

फिर किसी शाम एक सहेली
बनती है साक्षी
उन ख्वाहिशों के आख़िरी बार मरने का
जब कांपती उंगलियाँ ख़तों को आग लगाती हैं.

राख बन चुके कागज़ में
कुछ देर तक चमकते हर्फ़
इस अंतिम संस्कार में
मंत्रोच्चार करते हैं.
कौन कहता है लड़कियाँ चिताएं नहीं जलातीं?

लड़के प्रैक्टिकल होते हैं
फाड़ कर फेंक देते हैं ख़तों को
और पुरानी ख्वाहिशों से छुटकारा पा लेते हैं.
उनके हिस्से आया है सिर्फ
शरीर फूंकने का अधिकार.

अपनी-अपनी तकलीफ़ें हैं, दर्द हैं, जिम्मेदारियां हैं.

ख्वाहिशें भी हैं!

Saturday 21 July 2012

मुहब्बत कौन सी शय है, नहीं आसान बतलाना

मुहब्बत कौन सी शय है, नहीं आसान बतलाना

अगर ये आग है तो आग ये ऐसे भड़कती है
कि इसमें इश्क के शोले नयी उम्मीद ले ले कर
बदन की रेत पे आतिश की मानिंद खेल करते हैं

अग़र ये ओस है तो आरजुओं की चिताओं पर
ये बरसाती है खुद को राहतों की ठंडी बूंदों में

अगर ये धूप है तो दिल की दुनिया के अंधेरों में
ये चाहत के चिरागों को उजाला बाँट देती है

अगर ये रास्ता है तो जमाने भर के ठुकराए
मुसाफिर इस पे चल के मंजिलों की थाह लेते हैं,
सफ़र की दास्तानें गुनगुनाती हैं कई सदियाँ 

अगर ये गीत है कोई तो इसके लफ्ज़ इतरा  कर
लबों से लब की दूरी इस तरह से पार करते हैं
कि जैसे धडकनों को बोल पहले से ही जाहिर थे

बड़ा मुश्किल है बतलाना, मुहब्बत कौन सी शय है!

Friday 20 July 2012

कि तुमको प्यार है मुझसे


तेरी  नज़रों में जब  तल्खी 
मुझे दिखती हैं गर साथी 
तो मैं कहता हूँ ये खुद से
कोई उम्मीद ऐसी थी 
जिसे पूरा तो करना था
मगर मैं कर नहीं पाया

शिकायत तेरे लहजे में
कभी कानों तक आती है
तो मैं कहता हूँ ये खुद से
कोई वादा पुराना है
जिसे मैंने निभाने में
कहीं कुछ चूक की होगी

मगर ये तल्खियां सारी
शिकायत और गिले सारे
मुझे ढाढस बंधाते हैं
कि तुमको प्यार है मुझसे 

Wednesday 16 May 2012

पहले मोड़ के किस्से अजीब होते हैं


काश!
उस मोड़ पे
राह दिखाने के बजाय
तुमने हाथ मेरा थामा होता
और साथ चल दिए होते 
अगले कई मोड़ सुहाने होते
और ये सफ़र भी आसां होता
मैंने रातों को उठकर यही अकसर सोचा

बहुत दिन बाद ये इलहाम  हुआ
उस रोज़  मुझे आगे ही नहीं जाना था 
बस उसी मोड़ पे रूक जाना था
जहां तुमने मेरे लौटने की राह तकी  

पहले मोड़ के किस्से अजीब होते हैं
दिल के कितने क़रीब होते हैं !

Saturday 21 April 2012

जंगल रिश्तों में पनप रहा है

जंगलों में घुसपैठ कर बना लिए खेत
और बस गए गाँव
मगर धीरे-धीरे

खेतों में फ़ैल रहा है शहर
शहरों में उग आये हैं कंक्रीट के कैक्टस
बड़ी तेजी से

मौका मिला तो 
फिर से पैर पसार रहा है -
जंगल रिश्तों  में पनप रहा है
चुपचाप

एक चक्र पूरा हुआ ...

Monday 26 March 2012

ला-वजूद कर जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?


ख़्वाब के झरोखों पे धूप-छाँव तारी है                 
बेरहम उदासी है, बेसबब खुमारी है 
आँधियों में जिस तरह तितलियाँ बिखरती हैं 
हसरतों के पंखों का टूटना भी जारी है
दूरियों का आ जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
यूं तेरा चले जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?  

तल्खियों से हो गए रूबरू, मुकद्दर है
बेकरार लम्हों का बेसुकून मंजर  है 
चश्मे-नम की घाटी में दर्द का समंदर है
बूँद-बूँद छलका है, बेपनाह अन्दर है
हंस के यूँ रुला जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
यूं तेरा चले जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?

तुम नहीं तो देखना ख़ुदको, हासिल ही नहीं
ज़िस्म से जुदा-जुदा रूह, शामिल ही नहीं
एक सरापा ख़ामुशी, कोई महफ़िल ही नहीं
धड़कनों के शोर  के दिल ये क़ाबिल ही नहीं
हर निशाँ मिटा जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
ला-वजूद कर जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?

Tuesday 20 March 2012

वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ


यकीन मुझपे नहीं है तो राहगीर से पूछ
वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ

भले मैं एक नख्ले-खुश्क-ए-सहरा ही सही
वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ

कुएं की सिल पे निशां मैं कोई गहरा ही सही
वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ

भले ही आसमां में माह सा ठहरा ही सही
वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ

मैं अश्के-वक्ते-सफ़र आँख में उतरा ही सही  
वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ
 
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नख्ले-खुश्क-ए-सहरा  : रेगिस्तान में एक सूखा पेड़
माह : चाँद
अश्के-वक्ते-सफ़र : सफ़र पे जाते समय (महबूबा की आँख) का आंसू

Tuesday 13 March 2012

अब दर्द से, तक़लीफ़ से रिश्ता नहीं कोई

अब दर्द से, तक़लीफ़ से रिश्ता नहीं कोई
अच्छा भला लगे न पर खलता नहीं कोई 

अब ऐसी मुलाक़ात का किस्सा बयान क्या
दीखता तो रोज़ है मगर मिलता नहीं कोई

मुझको सुबह की आरज़ू क्यूँ कर हुआ करे  
रातों में भी चराग़ जब जलता नहीं कोई

या तो मेरे रुमाल की तासीर ख़ुश्क है
आँखों से या तो अश्क़ ही ढलता नहीं कोई

तारी है बेहिसाब गुल दिल की राह में 
चुपचाप दबे पांव अब चलता नहीं कोई 

दरया के पास रह के भी साहिल में प्यास है
बहने की होड़ में यहाँ रुकता नहीं कोई

Monday 5 March 2012

कुछ रस्ते से भटके लम्हे


कुछ रस्ते से भटके लम्हे
रातों के स्याह अंधेरों के 
गहरे सन्नाटों में आकर
कांधे पे सर रख देते हैं,
और बिलख-बिलख के रोते हैं।

उन लम्हों में होते हैं
कुछ भूले-बिसरे से साथी
कबसे बंद झरोखों से
जिनकी आवाजें आती हैं।

छत पर छुप कर बैठे-बैठे
यादें खुद से उकताती हैं
तब ठंडी आहों पर चढ़ के 
फिर से मिलने आ जाती हैं 
और दिल की आग बुझाती हैं।

रोते-रोते जब ये यादें
बच्चों की तरह सो जाती हैं
कुछ जवां उमर के बीते दिन
आँखों से आँख मिलाते  हैं,
कुछ बीते जख्मों की तड़पन
कुछ टूटे रिश्तों की किरचन
कुछ मुस्कानों की टीस लिए
दिल में रहने आ जाते  हैं।

कुछ रस्ते से भटके लम्हे
रातों के स्याह अंधेरों के 
गहरे सन्नाटों में आकर
कांधे पे सर रख देते हैं,
और बिलख-बिलख के रोते हैं ...

Tuesday 21 February 2012

ये पुरानी बातें हैं, जब मैं छोटा बच्चा था.


आसमां  के दामन पे
  मोतियों की शक्लों में
    जितने भी सितारे थे
      एक-एक कर मैंने 
        सबके-सब उतारे थे
और बंद हाथों को
  घर के एक कोने में
    (जो मुझे डराता था,
      रात के अंधेरों में)
        पहरेदार रक्खा था
          ये पुरानी बातें हैं
            जब मैं छोटा बच्चा था
घर का कोई भी कोना
  रात के अँधेरे में 
    अब डरा नहीं सकता
      क्या हुआ मुझे लेकिन
        अपने नन्हे बच्चे की
          मासूम एक ख़्वाहिश पे
            तारे ला नहीं सकता


अक्ल के अंधेरों ने
  मुझको ऐसे जकड़ा है
    चाह कर भी अब मेरा
      आसमान के तारों तक 
        हाथ जा नहीं सकता
तुम तो हो बड़े, पापा
  क्यूँ ये कर नहीं सकते ?
    गोल-गोल आँखें कर
      उसने मुझसे पूछा है
        साथ उम्र बढ़ने के
          होश के असर में यूँ
            आदमी क्यूँ अपने ही
              दायरों में जीता है -
                ये बता नहीं सकता
ये बता नहीं सकता



Sunday 12 February 2012

यहाँ तुमको मिलूँ मैं या फ़क़त मेरे निशां बाक़ी !


अगर तय कर ही बैठे हो
  किसी अब और के दिल में 
    तुम्हें जा कर के रहना है,
नहीं अब एक भी लम्हा 
  मेरे दामन के साए में
    बिता सकते यहाँ जानां,

तो लो जाओ, अगर जा कर
  सुकूं लगता है पा लोगे
    मुहब्बत तर्क कर हम से !
मगर हर मोड़ पे पत्थर
  सड़क के, तुमसे पूछेंगे
    किसे तुम छोड़ आये हो ?

कभी रुमाल का कोना 
  जो है भीगा हुआ अब तक
    मेरे अश्कों के धारे से
      तुम्हारे हाथ आया तो 
        तुम्हें हंसने नहीं देगा !

किसी ढलती हुई शब में
  कोई बीता हुआ मंज़र
    कि जिसमें साथ होंगें हम
      तुम्हें रोने नहीं देगा !

सुबह तक जागते रहना
  कोई देखा हुआ सपना
    कि जिसमें बारहा तुमने
      मेरा चेहरा निहारा था 
        तुम्हें सोने नहीं देगा !

भले ही फाड़ दोगे तुम
  जला कर राख़ कर दोगे
    मगर वो हर्फ़ चीखेंगें 
      जो मैंने ख़त में लिक्खे थे !

शहर के कूचा-ओ-गलियाँ
  तुम्हें पहचान ही लेंगें 
    मेरे बारे में पूछेंगें 
      बड़ी उलझन में रख देंगें 
        बड़े सीधे सवालों से !

कहाँ जा पाओगे ऐसे ?
  किधर का रास्ता लोगे ?
    इधर ही लौट कर तुमको
      चले आना पड़ेगा पर
        यहाँ तुमको मिलूँ मैं या
          फ़क़त मेरे निशां बाक़ी ........

Wednesday 8 February 2012

मिलने आये हैं गिले बनके बीते लम्हे


खुदको खोने के ज़ज़्बात नहीं बन पाए 
उसको पाने के हालात नहीं बन पाए 

मैंने तकलीफ़ बड़ी देर तक रोके रक्खी 
फिर भी रोने के हालात नहीं बन पाए 

ख़ुश्क आँखों के अश्कों में असर क्यूँ होता  
उसके दिल में वो बरसात नहीं बन पाए 

लफ्ज़ मांदा थे, रस्ते में कहीं जा बैठे 
उसको सुननी थी जो बात नहीं बन पाए 

किसी ख़ामोश सफ़र पे मिरे एहसास रवां
यूँ तो काफी थे, बारात नहीं बन पाए 

मिलने आये हैं गिले बनके बीते लम्हे
क्या कहूं, क्यूँ ये मुलाक़ात नहीं बन पाए 

Thursday 26 January 2012

एक सिपाही की लाश आयी है ....


एक माँ की जगी-जगी रातें
जिनको आराम हो चला था कुछ 
बेटा अब हो गया जवां उसका 
उम्र भर अब रहेंगी जागी ही


एक बहना के हाथ की राखी
चावलों में गुंथी हुई रोली 
बेवजह राह तकती हैं किसका 
उम्र भर इंतज़ार ही होगा

एक तस्वीर हाथ में थामे
कौन है जो खड़ी है खिड़की पे
आँख रोई सी, जुल्फ है वीरां 
अच्छा, इसका ही ब्याह होना था!

याद कर चौड़ी छाती बेटे की
पिता की आँख जो चमकती थीं 
बुझ गयीं हैं सदा सदा के लिए  
उनमें अब रोशनी नहीं होगी

पूछते क्यूँ हो तुम वजह इसकी 
तुमने शायद खबर नहीं देखी 
आज अखबार में जो छायी है
एक सिपाही की लाश आयी है.... 

ऐसी लाशों का नाम क्या लेना
तुमको उसके सगों से क्या लेना
चंद मेडल, मुआवजे, पेंशन 
इतना काफी है, और क्या देना

सियासती मसअला वो सीमा का 
इनके मरने से हल नहीं होता
मोहरे हैं, शहीद हो कर भी 
इनका चेहरा कोई नहीं होता

फिर भी क्यूँ आँख में खटकती है
पहले ही पेज पे जो आयी है
आज फिर से वही छपी है खबर
एक सिपाही की लाश आयी है ....

Tuesday 24 January 2012

कितना लाज़िम हैं ज़िन्दगी के लिए







चंद चेहरों का याद रह जाना, कितना लाज़िम हैं ज़िन्दगी के लिए
बारहा ये सवाल उठ जाना, कितना लाज़िम हैं ज़िन्दगी के लिए

मौसमों की तरह बदल जाना, दोस्तों ने कहाँ से सीखा है
दोस्तों के लिए बदल जाना, कितना लाज़िम हैं ज़िन्दगी के लिए

मानता हूँ सिवाय तल्खी के, कुछ भी दिल में तेरे नहीं बाकी
तल्खियों की तरह जिए जाना, कितना लाज़िम हैं ज़िन्दगी के लिए

हौसलों का करार है मुझसे, उम्र भर साथ मेरे रहने का
बदगुमां इस कदर रहे जाना, कितना लाज़िम हैं ज़िन्दगी के लिए

आज फिर शाम से जली शम्मा, आज फिर रात भर सुलगना है
रात-भर इस तरह जले जाना, कितना लाज़िम हैं ज़िन्दगी के लिए

Saturday 7 January 2012

मुद्दतों रखती है घर से दूर रोज़ी की तलाश


रोकता था कोई आँचल और मुझे जाना पड़ा  
साथ बीता एक ही पल और मुझे जाना पड़ा 

इस कदर मुझको सफ़र ने टूट कर आवाज दी
हर तरफ बादल ही बादल और मुझे जाना पड़ा 

सर्द तन्हाई का मौसम, तंग मेरा पैरहन
बस तेरी यादों का कम्बल और मुझे जाना पड़ा

मुद्दतों रखती है घर से दूर रोज़ी की तलाश
लौट के आया ही था कल और मुझे जाना पड़ा 

दोस्ती में तंज़ पाकर भी नहीं भूला उसे
वो मुझे कहता था पागल  और मुझे जाना पड़ा 

Tuesday 3 January 2012

क़ासिद कल से घूम रहा मन के गलियारे में


जब भी मैंने चाहा सोचूँ अपने बारे में

तेरा अक्स नज़र आया मन के गलियारे में 

चटका देगा कोई पत्थर, बाहर आते ही 
सपनों को रहने देना मन के गलियारे में 

शायद तूने फिर से कोई ख़त भेजा होगा
क़ासिद कल से घूम रहा मन के गलियारे में

चलते-चलते थक जाऊं तो सो भी जाता हूँ
घर जैसी ही ख़ामोशी मन के गलियारे में

एक ही सागर, एक ही मीना, एक ही साक़ी है 
एक ही महफ़िल सजती है मन के गलियारे में 

किसने शोर शहर में डाला, 'साहिल' है तनहा
यादों का हज्जूम चला मन के गलियारे में